Nishan Publication

प्रतिद्वंदी हाथियों की बीच घास की तरह कुचला जा रहा प्रेम

 इंटरनेट की पहुँच ने आज गाँव-गाँव वेलेंटाइन डे की प्रासंगिकता को पहुँचाया है, अन्यथा गाँवो में वेलेंटाइन डे की कोई अहमियत नही थी । आज पूंजीवाद के इस दौर में प्रेम को भी बाज़ार की वस्तु बना दिया गया है, यही वजह है कि आज निश्छल प्रेम म्यूजियम की वस्तु बन गयी है । आज कुछ भी शुद्धतम रूप में नही बचा है, हर चीज़ विकृत है, हर चीज़ भ्रष्ट है, और प्रेम भी इससे अछूता नही रहा है ।

फरवरी की गुलाबी सर्दियाँ अपने आप में ही रोमाटिंक एहसास देती है, जब बसंती हवा सर्द मौसम में नहाकर खिले फूलों की महक को लपटे फिज़ाओं को मदमस्त करने लगती है, अंगड़ाईयाँ लेकर तन-बदन में एक गुदगुदी हिलोरें मारने लगती है ।

खिली खिली धूप में जब दो युवा धड़कनें हाथ थामें एक साथ धड़कने को मचलते हैं तो उनको ये बताने की जरूरत नही होती कि वेलेंटाइन वीक चल रहा है । भारतीय प्रायदीप में ये मौसम हमेशा से प्रेम का रहा है । इसी बसंत में संगीत की देवी 'सरस्वती' की आराधना होती है, तो इसी बसंत में शिव और पार्वती के अगाध प्रेम का मिलाप होता है, इसी बसंत में कृष्ण का गोपियों के साथ रासलीला होता है । ऐसे में इस नैसर्गिक प्रेम को कोई कैसे नफ़रत की निगाह से देख सकता है ?



क्या सिर्फ इसलिए कि संत वेलेंटाइन गैर भारतीय हैं ?

नही ! ये मसला सिर्फ देशी-विदेशी का नही है, इसमें और भी कुछ पेंच है ।

इंटरनेट की पहुँच ने आज गाँव-गाँव वेलेंटाइन डे की प्रासंगिकता को पहुँचाया है, अन्यथा गाँवो में वेलेंटाइन डे की कोई अहमियत नही थी । आज पूंजीवाद के इस दौर में प्रेम को भी बाज़ार की वस्तु बना दिया गया है, यही वजह है कि आज निश्छल प्रेम म्यूजियम की वस्तु बन गयी है । आज कुछ भी शुद्धतम रूप में नही बचा है, हर चीज़ विकृत है, हर चीज़ भ्रष्ट है, और प्रेम भी इससे अछूता नही रहा है ।

अब प्रेम के पर्व को ही देखें तो पाएंगे दो कट्टर प्रतिद्वंदी हाथियों की बीच प्रेम घास की तरह कुचला जा रहा । एक तरफ वो पूंजीवादी लोग हैं, जो प्रेम को हर सूरत में पूंजीवादी बनाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं । मसलन, प्रेम में आपको फूल, चाॅकलेट, टैडी, सरप्राइज जैसे उपहार देने की अनिवार्यता रखी जाती है । आजकल तो प्रेम में गिफ्ट्स देने की इतनी वैरायटी आ गयी हैं कि खुद प्रेम भी अपने अस्तित्व पर शरमा रहा होगा । बाज़ार ये घोषित रूप से कहता है कि नमक-रोटी खाने वाले प्रेम के अधिकारी नही । दूसरी तरफ़ संस्कृति के स्वघोषित रक्षक प्रेम पर बात करने, इज़हार करने और प्रेम में जीने वालों के लिए तलवारें खींच लिया करते हैं । वेलेंटाइन डे पर जबरन मातृ-पितृ दिवस के रूप में मनाने के लिए तरह-तरह के प्रोपगेंडा चलाए जाते हैं । प्रेमी जोड़ो को सार्वजनिक स्थानों पर खुलेआम पीटते हैं, और उनके साथ बदतमीजी करते हैं । हैरत की बात है कि हाल के सालों में सरकारें भी ऐसे अराजक तत्वों को बैकडोर से समर्थन देती आ रही हैं ।

अब सवाल ये है कि प्रेम के वो समर्थक जो न बाज़ारवाद की तरफ जाना चाहते हैं न कथित संस्कृति की तरफ वो कहाँ जाएँ ?

प्रेम बेहद निजी और नैसर्गिक अभिव्यक्ति है, जिसपर किसी का कोई जोर नही । चाहे रोकने वाला कितना ही ताकतवर क्यो न हो, प्रेम को बांधकर नही रख सकता ।

असल में हम प्रेम को जितना कमजोर समझतें हैं वैसा कुछ है नही ।  प्रेम बंधनों को तोड़ना और दिलो को जोड़ना सिखाती है ।

प्रेम अन्याय, शोषण, असमानता के विरूद्ध हमेशा खड़ा रहा है, प्रेम कभी जाति, धर्म, नस्ल जैसी विभेदकारी तथ्यों को देखकर नही होता । अगर प्रेम इन तथ्यों को महत्व देता है तो वो प्रेम नही महज एक समझौता है । जब आप प्रेम में होते हैं तो आप एक रिबेल की भूमिका में होते है जहाँ आप अपने पार्टनर के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार होते हैं ।

भारतीय प्रायद्वीप ऐसे तमाम प्रेम-कहानियों से भरे हैं जिसमें नायक अपनी प्रेयसी के लिए प्रेम में डूबकर एक मिसाल दे जाता है ।

हीर-रांझा, सोनी-महिवाल, मिर्जा-साहिबा, ढोला-मारू जैसी लोककथाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी पहले हुआ करती थीं । कालिदास से लेकर शूद्रक और आधुनिक साहित्यकारों की फेहरिस्त में प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, मजाज, फैज सरीखे रचनाकारों ने प्रेम पर कितना कुछ लिखा है । तो क्या प्रेम सिर्फ साहित्य सृजन भर के लिए है ? ये उन स्वघोषित संस्कृति के ठेकेदारों से पूछना चाहिए कि प्रेम की इस पावन धरती पर क्या प्रेम करना सचमुच गुनाह है ? अगर ऐसा है तो वो कौन सी किताब है जिसमें ये लिखा है कि प्रेम करना गुनाह है । आप यकीन मानिए उनके पास इसका कोई जवाब नही होगा ।

अजब विडंबना है कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में जिस भारत की पहचान प्रेम की इमारत 'ताजमहल' और बाॅलीबुडिया लव-स्टोरी से रही है, और उसी भारत में प्रेम की ये दुर्गति ? ये हिप्पोक्रेसी नही तो और क्या है ?

दरअसल सच्चाई ये है कि प्रेम का मसला सिर्फ दो प्रेम करने वाले भर से संबंधित नही होता । अगर ऐसा होता तो ऑनर किलिंग के नाम पर हर साल लाखों लड़कियों को अपनी जान से हाथ क्यो धोना पड़ता है ? प्रेम का मसला जुड़ा है नारी-मुक्ति से । प्रेम के नाम पर पितृसत्तात्मक समाज का महिलाओं पर से अंकुश छूटने लगता है । मैं अंकुश शब्द का इस्तेमाल कर रहा क्योंकि मुझे यही मुफीद लगता है । पितृसत्ता ने हमेशा से महिलाओं को गुलाम बनाए रखने और उन्हें चहारदीवारी में कैद कर रखने की भरसक कोशिश की है । उनकी इच्छाओं को हमेशा नियंत्रित कर रखने की कोशिश की है । घर की लड़की का अपनी पसंद से प्रेम करना, अपनी पसंद से शादी करना पितृसत्ता के लिए हमेशा से नाक का सवाल रहा है । लड़की ने किसी लड़के को प्रेम कर लिया तो नाक कट गयी, लड़की घर से भाग गयी तो नाक कट गयी, लड़की ने अपने हक में फैसले ले लिए तो नाक कट गयी । मुझे नही समझ आता भारतीय समाज की नाक इतनी नाजुक क्यों होती है जो लड़की के स्वालंबी होने भर से कट जाती है ।

लड़की घर से भागती हैं तो इसका मतलब होता है कि वो पितृसत्ता को चुनौती दे रही है, और अपनी किस्मत का फैसला खुद कर रही है । अगर हम महिलाओं को उनकी मुकम्मल हक का हिस्सा उन्हे दें सकें, पितृसत्ता से मुक्त कर सकें, उन्हे बराबरी का मौका दे सकें तो इस दुनिया की प्रगति और बेहतर ढंग से हो सकती है । 

आलोक धन्वा की एक कविता है 'भागी हुईं लड़किया' उसका एक अंश मैं लिख रहा हूँ 

"अगर एक लड़की भागती है

तो यह हमेशा जरूरी नहीं है

कि कोई लड़का भी भागा होगा 

कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं

जिनके साथ वह जा सकती है

कुछ भी कर सकती है

महज जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है" 

आज के दौर में तमाम प्रगतिशील कवि, साहित्यकार, फिल्मकार और कला के हर क्षेत्र के प्रगतिशील बुद्धिजीवी महिला उत्थान के लिए कदम उठा रहें हैं । सही मायनों में प्रेम करने की आजादी हासिल करना ही प्रेम, सच्चाई, और नवचेतना का मार्ग प्रशस्त करना होगा ।

हमें ऐसे समाज का निर्माण करना हैं जो प्रेम से परिपूर्ण हो, जहाँ नफ़रत इतनी ताकतवर न हो कि वो सरे-राह प्रेम का गला घोंट सके । श्रम-विभाजन पर आधारित लैंगिक भेदभाव को खत्म कर स्त्री-पुरूष के विभेद को सिर्फ बायोलाॅजिक डिफरेंस तक सीमित कर देना है । हमें सच्चे प्रेम के लिए लड़ते रहना होगा, रूढ़िवादियों से, नफ़रत के सौदागरो से, और पूंजीवादी मूल्यों से । सही अर्थों में तभी बराबरी आएगी और प्रेम का गुलशन आबाद होगा । ये आसान तो नही है लेकिन हमें उम्मीद और लड़ाई दोनो बनाए रखनी हैं

साहिर लुधियानवी के शब्दों में 'वो सुबह कभी तो आएगी' ।



-सम्राट विद्रोही

(लेखक डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता, प्रगतिशील लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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