फिल्म समीक्षा- जय भीम
“गुरिल्ला जिन्दगी, जिसमें कोई ठहराव नहीं, कोई पक्का ठिकाना नहीं, एक रात से अधिक का कहीं बसेरा नहीं, हमेशा गति में रहती है. सुबह एक नदी का पानी तो शाम को दूसरी नदी का. जब गुरिल्ला दस्ता पहुँचता है, तो पगडंडियों के रास्ते खबर पहुँच जाती है. और सारा का सारा गाँव आ उमड़ता है."
"पर जब लम्बे समय तक वे नहीं पहुँचते, तो राहें उदास हो जाती हैं और गाँव को चिंता सताने लगती है. गुरिल्ले नहीं आयेंगे तो इसका सीधा अर्थ है कि पुलिस आयेगी. और पुलिस के आने का मतलब हर आदिवासी जानता है.’’
{सतनाम की किताब 'जंगलनामा' से}
एक आम आदमी के नजरिये से वो कौन सी वजहें रही होगीं जो आदिवासियों को हिंसा के रास्ते पर ढकेलता चली गईं । जंगलो में रहने वाले सीधे सादे आदिवासियों को आखिर क्यों मुख्यधारा से इस कदर इग्नोर किया गया कि उन्होंने मुख्यधारा से जुड़ने से ही इनकार कर दिया ।
नक्सली क्षेत्रों, खासतौर से छत्तीसगढ़ झारखंड, तेलंगाना और महाराष्ट्र में आदिवासी समुदाय का नक्सली विचारधारा से पुराना जुड़ाव रहा है । हजारों सालों की गुलामी से मुक्ति का जो भी रास्ता मिला उसे अख्तियार करना ही उन्हें जायज लगा ।
अंबेडकर मानते थे कि भारत में जाति व्यवस्था जितनी जटिल है उतनी शायद दुनिया की अन्य कोई नस्ल आधारित वर्गीकरण कहीं और न होगी । भारत की जाति व्यवस्था में जनजातियों का स्थान सबसे आखिरी पायदान पर है । हाशिए पर ढकेले गये समुदाय की कहानी को मुख्यधारा में कह पाना ही खामोशी को तोड़ते चले जाना है । सदियों से जिस गुलामी को चुपचाप सहते जाने से जो एक अंधी नीरवता अपनी पैर जमा चुकी थी उस गुलामी के टूटने की आवाज तो दूर तलक गूंजेगी ही ।
दक्षिण भारतीय फिल्मकार टी जे ज्ञानवेल द्वारा लिखित-निर्देशित फिल्म जय भीम ऐसी ही नीरवता को तोड़ते हुए आदिवासी समुदाय के दर्द को बयाँ करने की कहानी है ।
मद्रास हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस के चन्द्रू के संघर्षो की सत्य घटना पर आधारित फिल्म जय भीम जाति व्यवस्था के आखिरी पायदान पर खड़े आदिवासी समुदाय पर अत्याचार की कहानी कहती है ।
कथानक:
फिल्म की कहानी शुरू होती है एक जेल के बाहर रिहा हुए कैदियों से जेलर द्वारा जाति पूछने से । जिसमें उच्च जाति के कैदियों को घर जाने के लिए बोला जाता है तो वहीं नीची जातियों को एक अलग लाइन में खड़ा किया जाता है । एक सिपाही द्वारा यह पूछे जाने पर कि इन्हे लेने कोई क्यो नही आया ? इनकी क्या गलती है ? उसका साथी सिपाही जवाब देता है यही कि ये पैदा हुए।
दरअसल नब्बे के दशक के तमिलनाडु में डीजीपी का आदेश आता है कि प्रमोशन के लिए वही पुलिस अधिकारी योग्य होंगे जिनका कोई पेंडिंग केस नही होगा । पेंडिंग केस के निस्तारण के लिए आदिवासियों को जबरन बलि का बकरा बनाया जाता था क्योंकि उनकी कोई पहचान नही होती थी । न वोटर आईडी, न राशन कार्ड और न ही कोई अन्य पहचान । फर्जी अपराधी घोषित करने के लिए और प्रमोशन लेने के लिए आदिवासी सबसे आसान शिकार होते थे ।
ऐसे में मद्रास हाईकोर्ट के अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता के. चन्द्रू उनका केस लड़ने का जिम्मा उठाते हैं । इसी दरम्यान चोरी के फर्जी केस में मुलजिम बनाया गया एक आदिवासी गायब हो जाता है । कोर्ट में दायर किए गये 'हैबियस कार्पस पिटिशन' के नाटकीय घटनाओं और इसके जरिए पुलिस प्रशासन और तात्कालिक राजनीति की सिलसिलेवार ढंग से खुलती कलई ही इस फिल्म का मुख्य विषय है ।
फिल्म के एक सीन में बच्चों के फैंसी ड्रेस कंपटीशन में गाँधी, नेहरू, बोस को देखते हुए नायक पूछता है कि यहाँ अंबेडकर दिखाई क्यो नही देते ?
यह दृश्य हमें यह ध्यान देने पर मजबूर करता है कि
आज शोषण, असमानता और भेदभाव के दौर में जब सचमुच अंबेडकर की प्रासंगिकता हमारे दैनिक जीवन में बढ़ जाती है उस दौर में किस तरह एक खास तरह की राजनीति अंबेडकर को एक निश्चित फ्रेम में कैद कर देती है ।
ऐसे में जय भीम जैसी फिल्म का बनना और उसे पसंद किया जाना ये साबित करता है जब भी जातीय भेदभाव के नाम पर किसी भी वर्ग का शोषण होता दिखाई देगा अंबेडकर जी उठेंगे ।
संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार हर भारतीय को बराबरी का अधिकार देता है लेकिन सदियों से चली आ यही परंपराएँ हमेशा बराबरी के आड़े आती रही हैं । इस तथ्य को ज्ञानवेल ने बहुत ही संजीदगी से प्रस्तुत किया है । आदिवासियों का ऊँचे जातियों के घर से गुजरने पर चप्पल उतारने का आज भी दक्षिण भारत में अखंड परंपरा की तरह निर्वहन हो ही रहा है, जिसे फिल्म में बारीकी से फिल्माया गया गया । हर एक सीन पर ज्ञानवेल की मेहनत को सहजता से देखा जा सकता है । जो संदेश फिल्म देती है उसे बोलने, सुनने और देखने के लिए निश्चित रूप से मजबूत इंद्रियों की जरूरत पड़ती है।
संविधान में वर्णित स्वतन्त्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय जैसी बुनियादी अवधारणाओं पर जब चोट होती है, तब उनका प्रतिकार करना कितना ज़रूरी हो जाता है ये इस फ़िल्म में बख़ूबी दिखाया गया है। इसी के साथ साथ संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों की शक्ति और न्यायपालिका की निष्पक्षता जैसे महत्वपूर्ण पहलू फ़िल्म की सार्थकता को और बढ़ा देते हैं।
जय भीम शब्द जो कभी असमानता और शोषण के विरूद्ध एक उद्घोष हुआ करता था बाद के काल में उसे एक जातिसूचक अभिवादन तक सीमित कर दिया गया । वर्तमान में महाराष्ट्र के लोगो को भी जय भीम बोलने में शर्म महसूस होने लगी । उम्मीद की जाती है कि इस फिल्म को देखकर 'जय भीम' के असल मकसद को पुनः प्रासंगिक बनाया जा सकेगा ।
व्यवसायिक फिल्मों के अभिनेता सूर्या को दक्षिण के साथ साथ उत्तर भारत में बहुत पसंद किया जाता रहा है । सूर्या के अभिनय ने इस फिल्म को और भी सशक्त किया है । सूर्य के अभिनय करियर में यह फिल्म लम्बे समय तक याद रखी जाएगी । यह फिल्म व्यवसायिक और समानांतर सिनेमा के बीच की कड़ी है जिसे निश्चित रूप से समतामूलक समाज और प्रगतिशील समुदाय में खासा पसंद किया जा रहा है । सोशल मीडिया पर भी इस फिल्म ने बहुत सुर्खियाँ बटोरी और समीक्षकों का भी उत्साहवर्धन मिला । सही अर्थों में यह फिल्म भारतीय सिनेमा का चेहरा बनकर उभर रही है और आगे भी यह मील का पत्थर साबित होगी ।
-सम्राट विद्रोही
(लेखक कथाकार, फ़िल्म समीक्षक और पुणे विश्विद्यालय के शोधार्थी हैं)