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पत्रकार हमेशा सत्ता का स्थायी विपक्ष होता है: गणेश शंकर विद्यार्थी

महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी के जन्मदिन पर विशेष 

पत्रकारिता और सिर्फ पत्रकारिता करने वालों के लिए आज का दिन बहुत महत्व रखता है। आज ही के दिन गणेशशंकर विद्यार्थी जैसी महान हस्ती का जन्म हुआ था। उनके अंदर जन सरोकार वाली पत्रकारिता की मूल भावना ही थी, जिस कारण उन्होंने दंगों में फंसे कुछ असहाय लोगों को बचाने के लिए अपनी जान गंवा दी।  एक पत्रकार के लिए इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है।
श्री गणेश शंकर विद्यार्थी

26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद में जन्में गणेश शंकर विद्यार्थी की ख्याति को इसी बात से समझा जा सकता है कि महावीरप्रसाद द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर जैसे महान साहित्यकार उनकी प्रतिभा के कायल थे। रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी लोग उनके करीबी थे। रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा को उन्होंने प्रताप में प्रकाशित किया। अपने जीवनकाल में उन्होंने प्रताप, अभ्युदय, प्रभा जैसे पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया।  विद्यार्थी जैसे सम्पादकों की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे किसी तरह से पैसे जुटा कर अखबार निकालते थे। विद्यार्थी जी कभी भी अध्ययन कक्षों के पत्रकार बुद्धिजीवी नहीं रहे। अपने निर्भीक लेखन के साथ-साथ उन्होंने लगातार मज़दूर, किसान आन्दोलनों में भी शिरकत की थी जिसके कारण वे बार-बार सत्ता के गुस्से का शिकार हुए।

कहा जाता है कि भगत सिंह को भगत सिंह बनाने में उनका बड़ा योगदान रहा। अंग्रेजों से बचने के लिए भगत सिंह कुछ दिन प्रताप के दफ्तर में ठहरे। भगत सिंह का पहला पत्रकारीय अनुभव भी प्रताप के लिए रहा जब दिल्ली में दंगों की वजह जानने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने भगत सिंह को भेजा था। इसी तरह तमाम क्रांतिकारियों से उनके अच्छे सम्पर्क थे। जिनके विचारों को अपने अखबार के द्वारा वे देश के लोगों के बीच फैलाने का काम करते थे।
अंधराष्ट्रवाद के खतरों के बारे में गणेशशंकर विद्यार्थी ने आजादी के आंदोलन के समय ही आगाह कर दिया था. तब भी हिंदू राष्ट्र के पैरोकारों की एक धारा सक्रिय थी। राष्ट्रीयता शीर्षक से लिखे अपने इस लेख में वे कहते हैं, ‘हमें जानबूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए और गलत रास्ते नहीं अपनाने चाहिए. हिंदू राष्ट्र- हिंदू राष्ट्र चिल्लाने वाले भारी भूल कर रहे हैं. इन लोगों ने अभी तक राष्ट्र शब्द का अर्थ ही नहीं समझा है.’ राष्ट्र शब्द को लेकर उनका विचार था कि राष्ट्र ऐसा होना चाहिए जहां राष्ट्र के लोगों का शासन होना चाहिए। राष्ट्र के लोगों से उनका तात्पर्य देश में रहने वाले समस्त लोगों से था, चाहे वो जिस भी धर्म या जाति से हों।
धर्म पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्हीने कहा था कि अच्छे आचरण वाले नास्तिकों का दर्जा धर्म के नाम पर दूसरे की आजादी रौंदने और उत्पात मचाने वालों से ऊंचा है। धर्म को वे उन्मादी और साम्प्रदायिक रूप में स्वीकार नहीं करते थे। वे जीवन भर संप्रदायिकता के खिलाफ लड़े।
23 मार्च को भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु की फांसी के बाद देश में माहौल बहुत तनाव पूर्ण था। उसी के तीसरे दिन कानपुर में दंगे शुरू हो गए। गणेश शंकर विद्यार्थी ऐसे में चुप कहाँ बैठते। उन्होंने दंगों को शांत कराने के लिए ठानी और खुद ही निकल पड़े। कुछ जगहोँ पर वे लोगों को शांत कराने में सफल रहे। अचानक एक जगह पर एक परिवार को बचाने के दौरान उनकी जान ले ली गई। बताते हैं कि उनका शव कई दिनों तक लाशों के ढेर में पड़ा रहा। महज 40 साल की अल्पायु में साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरपन ने उनकी भेंट ले ली। 
कहा जाता है कि उनकी मौत के बाद कानपुर के हिन्दू-मुस्लिमों ने कसम खाई कि आज के बाद वो कोई दंगा नहीं करेंगे। उन्हीं की याद में हर साल होली के बाद गंगा मेला लगाया जाता है जिसमें दोनों समुदाय के लोग आपस मे गले मिलते हैं। गणेश शंकर विद्यार्थी भले ही आज हमारे बीच नहीं है पर उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। दिलों में फैली नफरत के दौर में आज उनके विचारों की ही जरूरत है।
                                                 
इम्तियाज़ अहमद
        


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