Nishan Publication

पूंजीवादी देशभक्ति और उसके छल प्रपंच

कलाम-ए-केजी

देशभक्ति आवश्यक रूप से एक राजनीतिक विचार मात्र है- भक्ति का विचार| चूँकि दुनिया का हर ऐसा विचार अनिवार्यतः वर्गीय होता है, देशभक्ति का विचार भी एक वर्गीय विचार ही है- पूंजीपति वर्ग का विचार| यही कारण है कि इसका सर्वहारा का विरोधी होना आवश्यक है|



     दुनिया की हर भक्ति कम से कम दो विचारों के मेल से बनती है, जैसे ईश भक्ति में दो विचार हैं, ईश का विचार और भक्ति का विचार| देशभक्ति में भी देश व भक्ति के दो विचार शामिल हैं| देश का विषय आते ही हमें सोचना पड़ेगा कि किसका देश? कैसा देश? किसके लिए देश? क्यों देश? भक्ति का विचार भी कई प्रश्न खड़े करता है| कैसी भक्ति? कितनी भक्ति? किसकी भक्ति? क्यों भक्ति? सगुण भक्ति या निर्गुण भक्ति? या दोनों? मनुष्य बड़ा है या देश? दोनों में प्रमुख कौन है?
     देशभक्ति की परिभाषा सरलता से की जा सकती है| देशभक्ति किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह की वह राजनीतिक अवधारणा है जो उसे या उन्हें अपनी एक सामूहिक व स्वाभाविक स्वामित्व वाली भौगोलिक. ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक व राजनीतिक इकाई की स्थापना, रक्षा, संचालन व सदस्यता के आदर्शों और उनके लिए कार्य, त्याग व बलिदान करने को प्रेरित करती है| इस परिभाषा में देशभक्ति के प्रमुख तत्व पांच हैं- देश-विचार, स्वामित्व, संचालन, त्याग और बलिदान| आगे हम इन तत्वों पर विचार करेंगे|

        आधुनिक देश (राष्ट्र-राज्य) का विचार कोई आदिकालिक विचार नहीं है| राष्ट्र व राज्य के दो अलग अलग विचार तो विकसित हुए थे, पर राष्ट्र राज्य का विचार 16वीं शताब्दी में ही विकसित होना प्रारंभ हुआ| अट्ठारहवीं शताब्दी यूरोप में औद्योगिक क्रांति की शताब्दी मानी जाती है| मशीनी उत्पादन की नई व्यवस्था ने यूरोप के हर सामंती राज्य में धनी सामंतों के समानांतर नवधनाढ्य उद्योगपतियों को जन्म दिया| इन उद्योगपतियों ने यूरोप को विश्व का नवोत्पादन केंद्र बना डाला| इस उत्पादन के व्यापर के लिए उद्योगपतियों की कम्पनियों ने गैर यूरोपीय इलाकों को अपने अपने उपनिवेशों में बदल डाला और इन उपनिवेशों पर राज्य करने लगे| उपनिवेशों पर शासन करने के दौरान स्वयं अपने मूल राज्यों में इन्होने राष्ट्रवाद का नारा देकर अपने अपने मूल क्षेत्रों में ऐसे देशों या राष्ट्र-राज्यों के गठन किये जो पूंजीपतियों द्वारा संचालित होते थे| चूंकि सत्ताधारी सामंत अपने राज्याधिकार छोड़ना नहीं चाहते थे, पूंजीवाड़ी विचारकों ने राष्ट्र-राज्य का नारा देकर सामंतों को पूंजीवाद का अनुगामी बनने को विवश किया| पूंजीवादी राष्ट्रवादियों ने ही सर्वप्रथम नारा दिया था कि प्रजा नागरिक बने और अपने लिए राष्ट्र-राज्यों का निर्माण, संचालन व रक्षा करने के लिए कार्य समर्पण त्याग व बलिदान करे| यही पूंजीवादी विचार बाद में देशभक्ति व राष्ट्रभक्ति के नाम से जाना गया| सामंती काल की राजभक्ति में नागरिकता व राष्ट्रीयता के तत्व शामिल नहीं थे| इन्हीं दो तत्वों ने आगे चलकर पूंजीवादी लोकतंत्र को अपनी विचारधारा का आधार प्रदान किया| पूंजीवादी शासक अपने इस लोकतंत्र का प्रयोग बेहद धूर्तता व मक्कारी के साथ करते हैं| वे जब जहाँ जैसा उपयोगी पते हैं, लोकतंत्र का उपयोग करते हैं और जब उससे काम नहीं चलता तो उसे नियंत्रित कर देते हैं या उसे जड़ से ही उतार फेंकते हैं|
     राष्ट्र-राज्य के विचार के विकास व राष्ट्र के निर्माण में पूंजीपति वर्ग जिन कारक तत्वों का सहारा लेता है वे प्रायः भौगोलिक, जातीय, धार्मिक, भाषाई, सांस्कृतिक, आर्थिक व राजनीतिक एकता होते हैं| वह इन्हीं तत्वों के नाम पर आम आदमी का आह्वान कर एक व्यापक जन-संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर एक राष्ट्र-राज्य बनाता है| विचार व राष्ट्र-राज्य के निर्माण की प्रक्रिया में सामान्य व्यक्ति दोनों के प्रति इतना समर्पित हो जाता है कि उसके लिए राष्ट्र-राज्य के विचार व स्वरुप दोनों ही समर्पण या उपासना की वस्तु बन जाते हैं| यही देशभक्ति होती है| पूंजीपति वर्ग आम आदमी की इस भावना का प्रयोग राष्ट्र-राज्य के प्रबंधन व संरक्षण में बेहद क्रूर चालाकी के साथ निरंतर करता रहता है|
     देश-राज्य या राष्ट्र-राज्य का विचार देते समय पूंजीवादियों की आवश्यकता थी कि वे रजा की प्रजा को उसका स्वामित्व दे दें| सीधे सीधे वे ऐसा करने का सहस नहीं रखते थे| नागरिकता में यह भाव (अप्रत्यक्ष ही सही) जगा दिया कि नये नये बनने वाले राष्ट्र-राज्य के स्वामी वे होंगे, राजा नहीं| आम आदमी के इस स्वामित्व भाव ने एक तरफ राष्ट्र- राज्य के सिद्धांत को बल दिया तो दूसरी तरफ आम आदमी से छिपाए रक्खी कि इस नए स्वामित्व का अर्थ है पूंजीपति वर्ग का स्वामित्व| दुनिया में जितने भी राष्ट्र-राज्य बने हैं स्वामित्व वहां के पूंजीपति वर्ग के हाथों में ही रहा है|
     राष्ट्रवाद का इतिहास हमें बताता है कि अपने अपने इतिहास-क्रम में उभरे प्रथम पूंजीवादी राष्ट्र शीघ्र ही प्रायः साम्राज्यवादी राष्ट्र बन गए यह दोनों कार्य एक साथ हुए| साम्राज्यवादी राष्ट्रवादियों ने अपने अपने नियंत्रण वाले उपनिवेशों में कुछ खास परिस्थितियों में अपने-अपने दलाल पूंजीपतियों को जन्म दिया जिन्होंने उन उन उपनिवेशों में उभरने वाले राष्ट्रवादों को संरक्षण दे डाला| यहां एक बात गहराई से समझने की है कि दुनिया का हर पूंजीवादी राष्ट्रवाद अनिवार्य रूप से साम्राज्यवादी होता है और उसके सरगना जो प्रारंभिक तौर पर उदार व साम्राज्यवाद विरोधी होने का स्वांग करते हैं, सशक्त होते ही क्रूरतम साम्राज्यवादी बन जाते हैं| हम भारतीय, पाक, बांग्लादेशी, श्रीलंकाई, ईराकी व ईरानी राष्ट्रवादियों के चरित्रों में यह बेहद सरलता से खोज सकते हैं|

कोई भी पूंजीपति वर्ग या पूंजीवादी राज्य देशभक्ति शब्द का प्रयोग इस प्रकार करता है कि मानो देश भक्ति का स्वरूप केवल एक ही होता है| सच्चाई इसके विपरीत है| किसी भी पूंजीवादी देश में देशभक्ति और राष्ट्रवाद एक ही प्रकार की ना होकर कम से कम तीन प्रकार की होती है- (1) सामंती देश भक्ति (2) पूंजीवादी देश भक्ति, और  (3) कमेरा या सर्वहारा देशभक्ति| किसी भी पूंजीवादी देश में अनिवार्यता यह तीन वर्ग पाए जाते हैं| यदि पूंजीपति वर्ग सामंत वर्ग को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लेता है तो भी सामंती वर्ग पूरी तरह वह समूल नष्ट नहीं होता| प्रायः यह दोनों वर्ग परस्पर सहयोगी बन जाते हैं और साझा सरकारें बनाकर कमेरों को अपने नियंत्रण में रखने के घिनौने काम में जुट जाते हैं| यह बात केवल कमेरों की क्रांति में होती है कि सामंत व पूंजीपति वर्ग दोनों ही कमेरों के नियंत्रण में आ जाते हैं| कमेरों की समाजवादी क्रांति जब सामंत व पूंजीवादी दोनों वर्गों को अपने नियंत्रण में ले लेती है तो शीर्ष पर वहां मात्र कमेरी देशभक्ति बची रह जाती है| यहां एक बात ध्यान देने की है कि जब एक वर्ग दूसरे वर्ग के नियंत्रण में आता है तो यह नियंत्रित वर्ग एकाएक समाप्त नहीं होते हैं| नियंत्रित वर्ग व उनके विचार अवशिष्ट के रूप में लंबे समय तक जीवित रहते हैं और उनके कभी भी पुनर्विकसित होने की संभावना बनी रहती है|

किसी भी राष्ट्र राज्य का सत्ताधारी वर्ग अकेले, या वह और उसके सहयोगी वर्ग मिलकर निरंतर यह प्रयास करते रहते हैं कि शासित-शोषित वर्ग उन्हीं की देशभक्ति को अपनी देशभक्ति भी मान लें और तदनुसार आचरण भी करें| यदि उन्हें ऐसा करने में सफलता मिल जाती है तो उन्हें शासन व शोषण करने में भारी सुविधा रहती है| द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जब दुनिया भर में कमेरों की देशभक्ति सामंतवाद व पूंजीवाद विरोधी हो गई थी और स्थिति यहां तक बिगड़ गई थी कि सामंतों व पूंजीवादियों को अपनी-अपनी सेनाओं के लिए कमेरों के बेटों की कमी पड़ने लगी थी और उनकी वफादारी संदेहास्पद लगने लगी थी तो साम्राज्यवादियों ने झटपट (अटलांटा घोषणा सन 1942) ऐलान कर प्रत्यक्ष उपनिवेशवाद छोड़ दिया और दुनिया भर में अपने-अपने उपनिवेशों को आजाद करना प्रारंभ कर दिया था|

यह जिम्मेदारी दुनिया भर के वैज्ञानिक समाजवादियों की है कि वह सामंती व पूंजीवादी देशभक्ति से मेहनतकश सर्वहारा अवाम की रक्षा करें| काल्पनिक समाजवादी सदैव ही सामंती और पूंजीवादी देश भक्ति के सफरमैंने या दुमछल्ले रहे हैं| वैज्ञानिक समाजवादियों को कदम कदम पर सामन्ती व पूंजीवादी देश भक्ति की क्रूरताओं व धूर्तताओं की निंदा करनी चाहिए| कमेरों को चाहिए कि वह निरंतर दबाव बनाए कि सामंत व पूंजीवाद अपनी अपनी देशभक्तियों का वहन अपने अपने बूते पर करें ना कि कमेरों के बूते पर| कमेरे अपने इस प्रयास में पहला काम यह कर सकते हैं कि वे पूंजीवादी सरकारों की सेनाओं और पुलिस में अपनी संतानों को कदापि ना भेजें| केवल इस एक कार्य से वे अपने शत्रु वर्ग को बड़ी-बड़ी  शिकस्तें दे सकते हैं|

दुनियाभर के,  या किसी एक देश के ही कमेरे ज्यों ही यह यह घोषणा कर देंगे कि वे पूंजीवादी सेनाओं और पुलिस में भर्ती नहीं होंगे, दुनिया भर के पूंजीवादी सर्वहारा के आंदोलनों पर गोलियां चलाना, उन पर जुल्म ढाना और दूसरी राष्ट्रीयताओं पर कब्जे कर उन पर जुल्म ढाना व विश्वयुद्ध लड़ने के पैंतरे मारना तुरंत समाप्त कर देंगे| अगला काम सर्वहारा के बुद्धिजीवियों का है कि वह इस दिशा में अपने वर्ग को जागृत करें|

-केजी त्रिवेदी
 (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वामपंथी विचारक हैं)


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