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सीतापुर में माफियोसी और भ्रष्टाचार का विकास (एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण)

कलाम-ए-केजी

यहां सीतापुर का अर्थ सीतापुर जिले से नहीं, शहर से है| सन 1856 ई. से पहले यह एक छोटा सा गांव था, नाम था छितियापुर| सन 56 में जब अंग्रेजों ने अवध के नाकारा व ऐय्याश नवाब को पेंशन दे दी और उसके राज्य को अपने शासन में ले लिया तो पूरे अवध को जिलों में बांट दिया| इसी बंटवारे में छितियापुर का गांव जिला मुख्यालय बनाया गया| बाद में इसका नाम सीतापुर पड़ गया| इसे किसी सीता के द्वारा बसाने की बात कोरी गप्प है| 

सीतापुर नाम का जिला मुख्यालय बनाए जाने पर यहां जिलाधिकारी, जिला- न्यायाधीश, पुलिस का कार्यालय, जिला जेल, फौजी छावनी तथा विकास आदि से सम्बन्धित कार्यालय बनाए गए और इन सब व्यवस्थाओं के लिए शहरी आबादी व व्यापार केंद्र की व्यवस्थाएं की गई| तेजी से एक जिला स्तरीय बाजार भी विकसित हुआ| विशेषतयः या अन्न व्यापार के लिए मारवाड़ी व्यापारी बसाए गए तथा जिला क्षेत्र के जमींदारों को जमीनें देकर उन्हें भी कोठियां बनाने को प्रेरित किया गया| सबसे बड़ी जमीनें राजा महमूदाबाद को दी गईं| यहां प्रारंभ में जो विकसित हुआ, अंग्रेज भक्तों का जमावड़ा मात्र था| 

उपरोक्त सारी व्यवस्थाएँ जन्म ले ही रही थीं कि सन 57 का विद्रोह हो गया| इस विद्रोह में सीतापुर के निवासियों ने कोई हिस्सा नहीं लिया था| अंग्रेजी सेना के अशिक्षित भारतीय सिपाहियों मात्र ने अपने अंग्रेज अफसरों, कलेक्टर, जिला जज व अपने कप्तान के विरुद्ध अपना फौजी गुस्सा निकाला था| इन सैनिकों ने कप्तान समेत कई अंग्रेज अफसरों को मार डाला और बाद में राजा महमूदाबाद के नेतृत्व में चिनहट चले गए, जहां 6 महीनों तक डेरा डाले पड़े रहे| नौ महीनों बाद जब अंग्रेजों ने सीतापुर पर पुनः कब्जा किया तो सैनिक इधर उधर जाकर छिप गए और कालांतर में गुमनाम व स्वाभाविक मौत मर गए| राजा महमूदाबाद अंग्रेजों का परम भक्त बन गया, जो वह सन 1947 तक बना रहा| 

जिन नौ महीनों तक सीतापुर में अंग्रेजी शासन समाप्त रहा, खैराबाद का पुराना नवाबी नाजिम लाला हरप्रसाद सीतापुर का नाजिम रहा| वह खैराबाद में रहकर नवाबी जागीरदारों से मालगुजारी वसूलने का प्रयास करता रहा पर जमींदारों ने उसकी कोई मदद नहीं की| अंग्रेजी सेना सीतापुर लौटी तो उसने मार काट तो खूब की पर सहजता से ही सीतापुर पर कब्जा बना लिया| इस पूरे प्रकरण में किवदंतियाँ बहुत हैं पर ऐतिहासिकता नाम मात्र की है| 

अंग्रेजों के सीतापुर लौटने पर पुनः निश्चिंतता लौट आई और वह पुनः पनपने लगा| अफसर व न्यायाधीश सब अंग्रेज थे, बड़े व्यापारी मारवाड़ी थे, जागीरदार इन दोनों से सहयोग करते थे और शहर में गुंडों तथा भ्रष्टाचारियों का सर्वथा अभाव था| चूंकि उन दिनों आवागमन के साधन कम थे, शहर आने वाले प्रायः जागीरदार या ग्रामीण यहां रात में बस जाते थे| उनके निवास का स्थान सराय हुआ करती थी जो मौजूदा घंटाघर के पीछे थी| इसी सराय के पास बाद में देह व्यापार मंडी विकसित हुई| यहां वेश्याओं के ग्राहक प्रायः जागीरदार होते थे| 

सन 1947 ई. की देश की आजादी तक सीतापुर शहर में भ्रष्टाचार तथा गुंडागर्दी का कोई उल्लेखनीय विकास देखने को नहीं मिलता| न प्रदर्शन होते थे और न मांगपत्र दिए जाते थे| छितियापुर काल के पुराने सीतापुर इलाके में आकर बसे एक अंग्रेज परस्त वकील ने कालांतर में कुछ जमींदारियाँ खरीद ली थीं और वहां छोटी सी हवेली बनाकर एक बड़ा जुआघर चलाया करता था, जहां कुछ धनी जुआरी नाल देकर अपना शौक पूरा करते थे| यहां शराबियों के जमावड़े लगते थे| नाल से पुलिस को माहवारी दी जाती थी पर कभी-कभी पुलिस से सांठगांठ बिगड़ने पर कानूनी लड़ाई भी लड़ी जाती थी| फुटकर गुंडे व भ्रष्टाचारी नहीं होते थे| देह व्यापार मंडी के भडुवे कुछ कुछ दबंगई दिखाते थे पर समाज में वे इतने हेय माने जाते थे कि मंडी से बाहर उनका कोई प्रभाव नहीं होता था| सदर थाना के एक दरोगा का वेश्या प्रेम किवंदतियों में तो है पर सीतापुर शहर पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि उस दरोगा ने उक्त वेश्या को बाद में लखनऊ में बसा लिया और सीतापुर से उसका सारा सम्बन्ध समाप्त हो गया| 

इस समय के दबंग भडूवों की दबंगई की केवल एक घटना अदालती दस्तावेजों में है| घटना एक छोटे से जमींदार के नौजवान ऐयाश बेटे से प्रारंभ हुई| यह जमींदार-पूत अपनी ऐयाशी के लिए देह बाजार में निरंतर आया करता था| एक दिन शराब के नशे में उसने एक 13 साल की वेश्या-पुत्री की जबरन नथ उतराई की कोशिश की| भडूवों ने इसका कड़ा विरोध किया| उस रात तो वहां मामला टल गया और वेश्या-पुत्री अपने गांव हाजीपुर घर पर भेज दी गई| जमींदार-पूत नहीं माना और वह सीधे गांव पहुंच गया| वहां भी वह नशे में धुत था, तो पुनः जबरदस्ती करने लगा| भडूवों ने जमींदार-पूत का इतना कड़ा विरोध किया कि ज़मींदार-पूत की मृत्यु हो गई| भडूवों ने इस ज़मींदार-पूत की लाश घर की बरवार में भूसे में छिपा दी| एक महीने बाद यह लाश बरामद हुई| मुकदमा चला पर तरीनपुर का जुआघर इस मामले को आई गई करने में सफल रहा| स्वयं जमींदार ने इस मुकदमे की पैरवी में कोई रुचि नहीं ली| बाद में वेश्या-पुत्री लखनऊ शिफ्ट हो गई, जहां वह मशहूर नर्तकी बनी| पर इस घटनाक्रम का सीतापुर के सामान्य जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा| उस समय सीतापुर में क्षत्रिय महासभा नहीं होती थी| 



उन दिनों के मारवाड़ी व्यापारी शांत स्वभाव व बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के होते थे| सीतापुर की महत्वपूर्ण संस्थाएं उन्हीं की देन हैं| पिंजरापोल सोसाइटी (गौशाला), सदावर्त, अनाथालय, धर्मशाला, सत्यनारायण मंदिर, आर०एम०पी० इंटर कॉलेज, आर० एम० पी० डिग्री कॉलेज, एच०के०पी०, उजागर लाल इंटर कॉलेज, आर्य कन्या पाठशाला और गोपाल घाट सभी मारवाड़ी समाज की देन हैं, यद्यपि इनके लिए धन जुटाने के लिए वह अपने धर्मादा के साथ-साथ किसानों के अनाज से “अंजुरी” निकलवाने का भी सहारा लेते थे| इन मारवाड़ियों की एक विशेषता थी कि यह व्यापार में मुनाफा तो खूब लेते थे पर भ्रष्टाचार का सहारा न के बराबर लेते थे| संस्था में भ्रष्टाचार करना यह स्वप्न में भी नहीं सोंचते थे| 

देश की आजादी के पहले दशक में सीतापुर शहर में भ्रष्टाचार का प्रवेश तो परिलक्षित होता है, पर गुंडागर्दी का प्रारंभ देखने को नहीं मिलता| आजादी के साथ भ्रष्टाचार का पहला वातावरण कोटा-परमिट राज से पैदा हुआ| इस समय दैनिक उपभोग की कई वस्तुएं परमिट से मिलने लगीं| जिला पूर्ति कार्यालय इन जरूरी वस्तुओं की राशनिंग करने लगा| कई मारवाड़ियों को भी कोटा-परमिट दिए गए| मारवाड़ी व्यापारियों ने ब्लैक आदि का सहारा तो नहीं लिया पर कोटा-परमिट से धन खूब कमाया| एक जिला पूर्ति अधिकारी ने इस धंधे में जिलाधिकारी को भी शामिल कर लिया| अब जिलाधिकारी व जिला पूर्ति अधिकारी दोनों मिलकर खूब अंधी कमाई करने लगे| इसी समय एक आश्चर्यजनक घटना घटी| दो पूर्ति निरीक्षकों ने यह कहकर नौकरी छोड़ दी कि पूर्ति विभाग में भ्रष्टाचार है अतः वह नौकरी नहीं कर पाएंगे| कोटा परमिट का एक बड़ा मारवाड़ी व्यापारी इन इंस्पेक्टरों की चारित्रिक पवित्रता से इतना प्रसन्न हुआ कि उसने अपने प्रबंधकत्व वाले एक नए-नए कॉलेज में इन दोनों इंस्पेक्टरों को नौकरी दे दी| बाद में यह दोनों मास्टर अपने शैक्षिक व्यक्तिगत चरित्र के लिए जाने गए| 

शराब का धंधा जिला पूर्ति अधिकारी के पास न होकर प्रारंभ जिलाधिकारी के पास था| मारवाड़ी व्यापारी इस धंधे से सदैव दूर रहे| इस पर कलवारी बनियों का एकाधिकार था| इस धंधे में जिला आबकारी अधिकारी को छोटा-मोटा ऊपरी लाभ होता था पर जिलाधिकारी द्वारा ठेके के समय एकमुश्त लाभ लिया जाना सन 1957 के बाद प्रारंभ हुआ| प्रारंभ में अदालतों में खर्चा-वसूली का चलन नहीं था| मजिस्ट्रेट व न्यायाधीश दोनों ही चरित्रवान, निष्ठावान व ईमानदार होते थे| 


सन 1952 के विधानसभा चुनाव में विशुद्ध तौर पर राजनीतिक व्यक्ति ही चुनाव जीते| गुंडे या तो थे नहीं या वे चुनाव लड़े ही नहीं| चुनाव जीतने वाले राजनीतिज्ञ न ही आर्थिक भ्रष्टाचारी थे और ना ही खुल्लम-खुल्ला गुंडा पालक| दलित मूल के विधायक बेहद विनम्र शालीन व भ्रष्टाचार मुक्त थे| गुंडा परस्ती की वह सोच भी नहीं सकते थे| सीतापुर में भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी का खुला राजनीतिक संरक्षण 57 के बाद प्रारंभ हुआ| इस चुनाव में एक समाजवादी विधायक बन गया| इस विधायक ने गुंडों, डकैतों, कालाबाजारियों व मिलावटियों को खुला संरक्षण देना प्रारंभ कर दिया| जिले भर के डकैतों व गुंडों में इस की प्रसिद्धि इस बात को लेकर हो गई कि वह अपने समर्थक डकैतों व गुंडों के लिए पुलिस अफसरों से लड़ जाता थाऔर अपनी जनसभाओं में थानेदारों व पुलिस कप्तान को खुली चुनौतियां और गालियां देता था| धीरे-धीरे पुलिस अफसर इससे मिलकर चलने लगे| सीतापुर जिले का यह पहला विधायक और राजनीतिज्ञ था जिसने अपने विधानसभा क्षेत्र के थानेदारों पर महावारियाँ बांध दीं| कांग्रेसी विधायक, सांसद व राजनीतिक इस समय तक भ्रष्टाचार व गुंडा संरक्षण से अपेक्षाकृत दूरी बनाए हुए थे| 

देश की आजादी का दूसरा दशक प्रारंभ होते होते कुछ अनहोनी घटीं| जिले का पूरा सोशलिस्ट आंदोलन समाजवाद के नाम पर विशुद्ध गुंडों के हाथों में चला गया| बाद में कांग्रेस भी ऐसे हाथों में चली गई जो ना केवल भ्रष्टाचार को खुला संरक्षण देते थे वरन उनके साथ साथ गुंडों को भी राजनीति में प्रोत्साहित करते थे| राजनीति विज्ञान में एम० ए० (बाद में पी० एच० डी० भी) इस कांग्रेसी ने खुल्लम खुल्ला ऐलान किया कि राजनीति कोई संत फकीरों का काम नहीं है| इसमें भ्रष्टाचारियों और गुंडों को भी साथ लेना पड़ेगा| भाजपा (तत्कालीन नाम जनसंघ) इस समय तक गुंडा व भ्रष्टाचारी मुक्त थी पर समाजवादी व कांग्रेसी दोनों समाज विरोधी तत्वों को संरक्षण देकर उनका राजनीतिकरण कर रहे थे| देश की राजनीति का इंदिरा युग प्रारंभ होते ही सीतापुर में गुंडा व भ्रष्टाचारी समर्थक राजनीति को प्रशासन का भी संरक्षण मिलने लगा| अब सीतापुर के हर डी०एम० व एस०पी० के लिए अनिवार्य होने लगा कि वह भ्रष्टाचार व माफिया समर्थक सरगना के इशारों पर चले| इनमें से कोई यदि इस दिशा निर्देश को नहीं मानता तो झटपट उसका स्थानांतरण कर दिया जाता| 

यहीं से प्रारंभ हुआ राजनीतिज्ञ – गुंडा - भ्रष्टाचारी गठजोड़| लखनऊ के कैसरबाग इलाके में इस गठजोड़ का बाकायदा एक अड्डा बन गया जहां चौबीसों घंटे इनका दरबार लगा रहता और निरंतर साजिशें रची जाती रहतीं कि सीतापुर में कहां कब और कैसे क्या भ्रष्टाचार और क्या गुंडागर्दी बरपा करनी है| अब गुंडागर्दी तेजी से अपने माफिया स्वरूप को विकास दे रही थी| यहीं से सीतापुर के प्रारम्भिक माफिया गिरोहों और उनके अड्डों का जन्म हुआ| इस नवोदित अड्डे पर सीतापुर के भ्रष्ट कलेक्टर, भ्रष्ट एस०पी० व भ्रष्ट न्यायाधीश सीतापुर जिले के नवोदित गुंडों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बैठ रहे थे और साथ-साथ चाय पी रहे थे|


                                              
                        -के०जी० त्रिवेदी
                                               (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वामपंथी विचारक हैं) 
                                                           (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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